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देश का ऐसा राष्ट्रपति चुनाव जब मैदान में उतर गए थे 17 उम्मीदवार, बदलना पड़ा ये नियम

13 मई 1967,देशकाऐसाराष्ट्रपतिचुनावजबमैदानमेंउतरगएथेउम्मीदवारबदलनापड़ायेनियम देश के लिए गौरव का पल था. इस दिन देश को एक शिक्षाविद् राष्ट्रपति के साथ-साथ पहला मुस्लिम राष्ट्रपति भी मिला था. जीत का ऐलान दिल्ली की जामा मस्जिद से भी किया गया. लोग ढोल-ताशे के साथ जश्न मनाते हुए राष्ट्रपति भवन तक गए, लेकिन इस चुनाव में ऐसा कुछ हुआ कि भविष्य में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए नियमों को सख्त करना पड़ा.चुनाव आयोग के मुताबिक, यह देश का एकमात्र राष्ट्रपति चुनाव था, जिसमें सबसे ज्यादा 17 उम्मीदवार थे. हालांकि, 9 उम्मीदवार ऐसे थे, जिन्हें एक भी वोट नहीं मिला. ये थे चंद्रदत्त सेनानी, यू.पी. चुगानी, डॉ. एम.सी. डावर, चौधरी हरि राम, डॉ. मान सिंह, मनोहर होल्कर, मोतीलाल भीकाभाई पटेल, सीतारमैया रामास्वामी शर्मा होयसल और सत्यभक्त.5 उम्मीदवारों (यमुना प्रसाद त्रिसूलिया, भांबुरकर श्रीनिवास गोपाल, ब्रह्मा देव, कृष्ण कुमार चटर्जी, कुमार कमला सिंह) को 250 से ज्यादा वोट नहीं मिले थे और एक उम्मीदवार खुबी राम को 1369 वोट मिले थे.शुरुआत में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के नियम बहुत सरल थे. प्रत्याशियों को दो प्रस्तावक और दो समर्थक की जरूरत होती थी. यानी वो व्यक्ति जो चुनाव लड़ना चाहता है, उसे राष्ट्रपति चुनाव में वोट करने वाले कम से कम चार विधायक जानते हों. यह नियम इतना सरल था कि इसका करीब 20 साल तक दुरुपयोग हुआ.नियम को कठिन करते हुए 1974 में संविधान संशोधन कर दो-दो विधायकों की अनिवार्यता को बढ़ाकर 10-10 कर दिया गया. फिर 1997 में एक और संशोधन कर इसे 50-50 कर दिया गया. ये तो हो गई राष्ट्रपति चुनाव के नियम में बदलाव की बात.जामिया मिल्लिया इस्लामिया के पूर्व प्राध्यापक और डॉ. जाकिर हुसैन के सहकर्मी डॉ. जियाउल हसन फारूकी ने अपनी किताब में बताया कि 1967 में तत्कालीन कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष के. कामराज चाहते थे कि डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन दोबारा राष्ट्रपति बनें और उपराष्ट्रपति जाकिर हुसैन को कार्यविस्तार दिया जाए लेकिन इंदिरा गांधी जाकिर हुसैन को अगले राष्ट्रपति के तौर पर देख रही थीं. हालांकि उनके मन में यह शंका थी कि जाकिर साहब इस पद के लिए तैयार हैं भी या नहीं?आईके गुजराल ने इंदिरा की इस चिंता का जिक्र करते हुए अपने एक लेख में लिखा था कि एक दिन इंदिरा गांधी ने उनसे राष्ट्रपति पद के लिए जाकिर हुसैन का मन टटोलने के लिए कहा था. इसके बाद वह जाकिर साहब से मिले तो उन्होंने कहा, "अगर आप मुझसे राष्ट्रपति भवन जाने के लिए कहें तो मैं इतना मजबूत नहीं कि 'न' कह दूं. उनका इशारा स्पष्ट था कि वह इस पद के लिए तैयार हैं.इस बीच सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी दोबार चुनाव लड़ने से मना कर दिया. ऐसे में कामराज को जाकिर हुसैन के नाम पर सहमत होना पड़ा. वहीं विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश कोटा सुब्बाराव को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया.डॉ. जियाउल हसन फारूकी ने अपनी किताब डॉ. जाकिर हुसैन में बताया कि स्वतंत्र पार्टियों ने राष्ट्रपति पद के लिए जय प्रकाश नारायण (जेपी) के नाम की पुष्टि की थी लेकिन जेपी का कहना था कि वह इस समय जाकिर साहब को ही देश के इस उच्च पद के लिए सबसे उपयुक्त समझते हैं. उनकी इस चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं रही.वहीं 25 फरवरी को 1967 को देश के बुजुर्ग राजनीतिक परामर्शदाता राजाजी ने भी जाकिर साहब के राष्ट्रपति बनाए जाने के विचार का समर्थन किया था. इसी के बाद चुनाव का माहौल बदल गया और जाकिर हुसैन राष्ट्रपति चुन लिए गए.राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोटिंग 6 मई को हुई. 9 मई की शाम को जाकिर हुसैन की जीत का ऐलान हो गया. उन्हें 471244 और के. सुब्बाराव को 363911 वोट मिले थे. आकाशवाणी का नियमित प्रसारण रुकवाकर जाकिर हुसैन की जीत का ऐलान किया गया. दिल्ली की जामा मस्जिद से भी जीत की घोषणा की गई.नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली की सड़कों-गलियों में लाउडस्पीकर से उनकी जीत का ऐलान हो रहा था. लोग खुशी से नाच रहे थे, एक-दूसरे को गले लगा रहे थे जैसे वे ईद मना रहे हों. 13 मई को उन्होंने राष्ट्रपति पद की शपथ ली.लेखक जियाउल हसन फारूकी के मुताबिक 13 मई को जाकिर हुसैन को राष्ट्रपति पद की शपथ लेनी थी. इससे एक दिन पहले जाकिर हुसैन शृंगेरी के जगत्‌गुरु शंकराचार्य से आशीर्वाद लेने नई दिल्ली में उनकी लोदी स्टेट के कोठी नं 11 गए. जब वह पहुंचे तो शंकराचार्य अपने आसन पर बैठे थे. जाकिर हुसैन ने झुककर उन्हें फूलों की माला भेंट करते हुए आशीर्वाद लिया फिर चरण स्पर्श कर वहां से चले आए. इसके बाद उन्होंने जैन मुनि सुशील कुमार से भेंट की.जिगर मुरादाबादी का यह शेर डॉ. जाकिर हुसैन के दिल के बेहद करीब था. शायद यह इत्तेफाक ही था कि उनकी मौत भी एक कार्यक्रम के बहाने उन्हें लेने आयी थी. दरअसल, उनके निधन से कुछ दिन पहले उनका असम दौरा था लेकिन वहां जाने से पहले ही उनकी तबीयत बिगड़ गई. डॉक्टरों ने उन्हें दौरा रद्द कर आराम करने को कहा.इस पर उन्होंने कहा कि राज्यपाल इस दौरे के लिए मुझे काफी दिन से मना रहे थे. अगर मैं नहीं जाऊंगा तो बहुत से लोगों को दुख पहुंचेगा. सेहत जरूरी है लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है अपने कर्तव्य को निभाना. उन्होंने डॉक्टरों को यह कहकर मना लिया कि असम से लौटने के बाद वह ओखला वाले घर चले जाएंगे, जहां सिर्फ आराम करेंगे.जब वह लौटे तो उनकी तबीयत और खराब हो गई थी. डॉक्टरों ने उन्हें पूरी तरह से आराम करने के लिए कहा. हालांकि दस दिन बाद 3 मई को उनका निधन हो गया. निधन वाले दिन सुबह करीब पौने ग्यारह बजे डॉक्टर चेकअप के लिए आए तो वह डॉक्टरों को इंतजार करने की बात कहकर बाथरूम में चले गए.काफी देर बाद भी जब वह नहीं लौटे तो उनके विशेष सेवक इसहाक ने बाथरूम का दरवाजा खटखटाया. भीतर से जवाब नहीं मिला तो दूसरे दरवाजे से वह बाथरूम में गया तो देखा कि जाकिर हुसैन जमीन पर बेसुध पड़े थे. डॉक्टरों ने बताया कि उनका निधन हो गया. पांच लाख से ज्यादा लोग उनके अंतिम दर्शन के लिए आए थे. राष्ट्रपति भवन के बाहर करीब तीन मील तक लोग उनकी झलक पाने के लिए लंबी कतार में खड़े रहे थे.8 फरवरी 1897 को हैदराबाद में जन्मे जाकिर हुसैन के पिता का निधन 1907 में हो गया था. चार साल बाद उनकी मां का निधन हो गया. तब उनकी उम्र 14 साल थी लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. उन्होंने 5वीं से लेकर जर्मनी में पीएचडी करने तक का सफर तय किया. बाद में जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें राज्यसभा सांसद बनाया. 1956 में राज्यसभा चेयरमैन बने. 1957 में उन्हें बिहार का राज्यपाल बना दिया गया. इसके बाद 1962 में देश के दूसरे उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए, फिर 13 मई 1967 को देश के तीसरे राष्ट्रपति और पहले मुस्लिम राष्ट्रपति चुने गए.

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